शाहबानो, 1986 से सायरा बानो ,2019 तक का सफर

"कानून का शासन और व्यवस्था बनाए रखना ही शासन का विज्ञान है"
                                  Kautilya arthashastra
               
         उपरोक्त पंक्तियां कानून के उद्देश्य को रेखांकित करती हैं।कानून किसी भी देश की शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने का एक माध्यम होता है तथा समाज में होने वाली गैरकानूनी गतिविधियों को रोकने का प्रयास करता है। एक प्रगतिशील कानून किसी भी सभ्य समाज के लिए अनिवार्य होता है। यहां प्रगतिशील कहने का निहितार्थ यह है कि कानून समय और समाज के अनुसार बदलता रहे और लोगों की समस्याओं और कठिनाइयों को तार्किक आधार पर सुलझाता रहे।
          वर्तमान समय में तीन तलाक पर बनने वाले कानून को लेकर बुद्धिजीवियों में बहस का माहौल गर्म है। तीन तलाक का विषय कोई नया नहीं है । इसका सफर शाहबानो मामला ,1986 से शुरू हुआ। शाहबानो मध्य प्रदेश, इंदौर की रहने वाली एक मुस्लिम महिला थी। उनके पति मोहम्मद अहमद ने 62 वर्ष की उम्र में उन्हें तलाक दे दिया था। शाहबानो उस वक्त 5 बच्चों की मां थी। बच्चों और अपनी आजीविका का कोई साधन ना होने से पति से गुजारा भत्ता लेने के लिए उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया यद्यपि उन्हें यहां तक पहुंचने में 7 साल लग गए। अदालत ने उनके साथ इंसाफ किया भी और उन्हें गुजारा भत्ता के योग्य माना परंतु उस वक्त की राजीव गांधी सरकार ने द मुस्लिम वूमेन प्रोटक्शन आफ राइट्स एक्ट 1986 लाकर अदालत के फैसले को लागू होने से रोक दिया और उस लाचार, बेबस महिला को धर्मनिरपेक्षता की आड़ में इंसाफ पाने से वंचित कर दिया।
            दूसरा प्रसिद्ध मामला सायरा बानो ,2017 का है। 40 साल की सायरा बानो को उनके पति ने टेलीग्राम भेजकर तलाक दिया था।वह भी न्याय पाने  के आस में सुप्रीम कोर्ट पहुंची ।अगस्त, 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाकर तीन तलाक को असंवैधानिक करार दिया था एवं सरकार को कानून बनाने का आदेश दिया था।
              अब मोदी सरकार ने द मुस्लिम वुमेन प्रोटेक्शन ऑफ राइट्स ऑन मैरिज बिल 2019 लाकर तीन तलाक को क्रिमिनल अपराध की कैटेगरी में रख दिया जबकि वैवाहिक मामले सिविल कैटेगरी में आते हैं। वैसे अपराध क्रिमिनल हो या सिविल हो अपराध तो अपराध होते हैं और कानून का उद्देश्य तो एक ही होता है ,अपराध को रोकना। परंतु इस कानून को लेकर बुद्धिजीवियों में बहस का माहौल गर्म है। कुछ लोग इस कानून की इस आधार पर आलोचना कर रहे हैं कि जब सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को अवैधानिक करार दे दिया था तो इस पर कानून बनाने की क्या जरूरत थी परंतु वे बुद्धिजीवी भूल जाते हैं कि भारत में बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो सुप्रीम कोर्ट जैसी संस्थाओं के आदेशों और निर्णयों को तवज्जो नहीं देते अब यदि इन्हीं में से किसी व्यक्ति ने तीन तलाक का दुरुपयोग करते हुए अपनी पत्नी को तीन बार तलाक बोल देता है तो उस पर प्रशासन कार्यवाही कैसे करेगा और उस महिला को न्याय कैसे मिलेगा और सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन कैसे होगा।
                कुछ लोगों का यह भी मानना है कि यह कानून मुस्लिम समाज और मुस्लिम पर्सनल लॉ में सरकार का सीधा हस्तक्षेप है। कुरीतियां चाहे समाज में  हो या फिर कानून में उन्हें समाप्त करना सरकार और समाज का दायित्व होना चाहिए।
                अतः तीन तलाक पर बनने वाले कानून को सकारात्मक नजरिए से देखना चाहिए और समाज में व्याप्त इन जैसी अन्य कुरीतियों को भी दूर करने का प्रयास करना चाहिए। यह काम सिर्फ सरकार का नहीं होना चाहिए बल्कि समाज को भी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सेदारी करनी चाहिए। यदि कोई व्यक्ति कानून का पालन नहीं करता है तो उसे दंड अवश्य मिलना चाहिए।  कामंदक नीति सार में कानून के महत्व को बहुत ही सुदृढ़ तरीके से रेखांकित किया गया है जो निम्नलिखित है।

"यदि कानून के शासन की अवहेलना की जाती है, तब किसी प्रकार के ज्ञान का कोई महत्व नहीं रह जाता है"

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